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रविवार, 13 नवंबर 2022

जाग रे इनसान अब

 

जाग रे इनसान

जाग रे इनसान अब, तू तुरंत  जाग  रे।

समय है पुकारता, तू अविलंम्ब जाग रे।।

 

तेरे गहन  निंद्रा ने, क्या  गज़ब है ढाया।

तू बेफिक्र सो रहा, तेरा घर ही लुटाया।।

शैतानों ने देखो तुझको चाकर  बनाया।

तुझमें दृष्टि दोष देकर, आंधर  बनाया।।

खुमारी उतार तू, आलस छोड़  जाग रे।

समय है पुकारता, तू अविलंम्ब जाग रे।।

 

तेरा अन्न  खाकर, तेरी बुद्धि को भरमाया।।

तेरे  घर  में  पलकर, तेरी  आस्था  चुराया।।

तेरे यकीन को  असुरों ने, तोडा डगमगाया।

अपना  बनाकर तुझको, कैसा पाठ पढ़ाया।।

अब तो मुंह खोल प्यारे, अब ना तू भाग रे।

समय  है  पुकारता, तू अविलंम्ब  जाग  रे।।

 

तेरे  मौन  से  ही खल के  हौसले  बढे हैं।

तेरी बुजदिली से,नीच अधम आज खड़े है।।

षड़यंत्रकारी  निर्लज्ज  सर्वत्र  घूम रहें  है।

हे ! क्रांतिकारियों ! क्यों  सांप सूंघ रहे हैं ?

तुम ही तो हंस हो, क्यों बने  हो  काग रे।

समय है पुकारता, तू अविलंम्ब जाग रे ।।

 

तेरे  जागने  का  अगर, समय  नहीं आएगा।

हरी  भरी बगिया, फिर  बंजर हो जायेगा।।

दुर्जनों की दुष्टता से, कुछ भी बच न पायेगा।

अब भी नहीं बोले तो,सबकुछ लुट जायेगा।।

औरों को जगाओ अब,तू स्वयंम भी जाग रे।

समय  है  पुकारता, तू अविलंम्ब  जाग रे ।।

-उमेश यादव

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