यह ब्लॉग खोजें

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

कस्तूरी कैसे पाऊं

कस्तूरी कैसे पाऊं

वन वन भटक रहा हूँ मैं,कस्तूरी कैसे पाऊं।

थाह सकूँ ना मन को अपना,जीवन व्यर्थ गवाऊं।।

दिग-दिगंत तक पहुंचे किन्तु,मन को ढूंढ न पाऊं।

अंतस अपना देखूं ना, जीवन को व्यर्थ गवाऊं।।

 

हर कोना गलियारा खोजा,ह्रदय खोज ना पाया।

दया करुणा ममता को मैंने,उर में न विकसाया।।

परहित में न लगा ये जीवन,कैसे मुंह दिखाऊं।

वन वन भटक रहा  हूँ मैं, कस्तूरी कैसे पाऊं।।

 

ढूंढ न पाया तुझको मैंने, मंदिर में गुरुद्वारों में।

कस्तूरी न मिला मुझे,चर्चों में,मस्जिद द्वारों में।।

इसी सुवास की मस्ती से मैं,बनठन कर इतराऊं।

वन वन भटक रहा हूँ मैं,कस्तूरी कैसे पाऊं।।

 

कभी किसी को रोते देखा,पर पुचकार न पाया।

पीड़ा में जो पड़े हुए थे, ना उनको सहलाया।।

दिल भी नहीं पसीजा कैसे, खुद को श्रेष्ठ बताऊँ।

वन वन भटक रहा हूँ मैं,कस्तूरी कैसे पाऊं।।

 

सत्य प्रेम न्याय हो जग में,स्वर्ग धरा पर लायें।

मानव मात्र एक समान हो, दुनिया नयी बसाए

मन कर्म वचन समर्पण से मैं,सेवा में लग जाऊं।

वन वन भटक रहा हूँ मैं,कस्तूरी कैसे पाऊं।।

 

खोजे मैंने अमित लोक पर मन ही खोज ना पाया।

झूठी मृग तृष्णा ने हमको, आजीवन भटकाया।।

अंतस में अंधियारा फैला,कैसे प्रभु को पाऊं।

वन वन भटक रहा हूँ मैं,कस्तूरी कैसे पाऊं।।

-उमेश यादव

कोई टिप्पणी नहीं: